बिहार के, अब सिर्फ नाम भर के, मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने फतवा जारी किया है कि अब जो भी किसी धरना, चक्का जाम या किसी आंदोलन में भाग लेगा, उसे न नौकरी दी जायेगी, न कोई ठेका दिया जायेगा, न किसी भी तरह की सरकारी योजनाओं का ही लाभ दिया जायेगा। जनता के आंदोलनों के प्रति इस तरह का मौलिक नुस्खा अंग्रेजों के जाने के बाद पहली बार किसी सरकार ने आजमाया है। नितीश बाबू खुश हो सकते हैं कि कुछ ही दिन बाद उनके परिधानजीवी-कारपोरेट परजीवी प्रधानमंत्री जी ने “आन्दोलनजीवी” शब्द गढ़कर उनके इस नायाब नमूने को “सैध्दांतिक महत्ता” प्रदान की है।
मजेदार विडंबना की बात यह है कि मोदी और नीतीश कुमार की प्रजाति के प्राणी, जहां आज हैं वहाँ, इसी तरह के आन्दोलनों से निकल कर पहुंचे हैं। वे अपनी योगदान और उपलब्धियों में यह बात बार-बार गिनाते भी रहते हैं। चाहे वह जयप्रकाश आंदोलन की जमाने की कहानियां हो, चाहे वह इमरजेंसी के खिलाफ लड़ी गई तथाकथित लड़ाई हो, मोदी और नीतीश कुमार की प्रजाति इसे सुर्खाब के पर की तरह अपने ताज में लगाती है।
इनकी मौजूदा सरकार तो बनी ही अन्ना हजारे के प्रायोजित आंदोलन के कंधे पर सवार होकर। लेकिन अब भले भारत का संविधान आंदोलन और विरोध करने के अधिकार को नागरिकों के मूल अधिकार के रूप में स्थापित करता हो, भले असहमति सभ्य समाज की जीवन शैली और पहचान हो, इन्हें उससे कोई मतलब नहीं। अब आंदोलन अपराध है, क्योंकि हमारा राज है।
मोदी कहे तो यह बात समझ में आती है, क्योंकि वे फासिस्ट आरएसएस की कठपुतली है, जिसकी यह साफ-साफ धारणा है कि उनके हिंदुत्व में लोकतंत्र के लिए कोई जगह नहीं है। आम लोगों को अपनी असहमति दर्ज कराने का कोई प्रावधान नहीं है। जो राजा कहे, उसी को मान लेना चाहिए । मगर नीतीश कुमार के मुंह से यह बात कुछ भले लोगों को चौंकाने वाली लग सकती है। ये वे कुछ लोग हैं जो उन्हें मीडिया के प्रायोजित प्रचार के आधार पर “सुशासन बाबू” मानते हैं, तो कुछ उन्हें आज भी सब कुछ के बावजूद लोहियावादी समझते है। अब वह कितने लोहियावादी हैं, यह तो लोहिया जी बता पाएंगे या शायद वे भी न बता पाए। मगर इतना तय है कि वे लोहियावादी समाजवादियों का आधुनिक संस्करण है। उनके वैचारिक पतन की एक नयी नीचाई हैैं!!
एक जमाना था, जब यही समाजवादी आंदोलन के अधिकार को इतना बुनियादी मानते थे कि केरल के समाजवादी मुख्यमंत्री पट्टम थानु पिल्लै की सरकार द्वारा गोली चलाये जाने पर उन्ही के खिलाफ आंदोलन कर दिए थे और उनके इस्तीफे पर ही माने थे – और एक समाजवादी यह हैं, जिन्हें आंदोलन नाम से ही चिढ़ है ।
नितीश कुमार समाजवादियों की जॉर्ज फर्नान्डीज के कुलपतित्व वाली धारा के आचार्य है। वही जॉर्ज फर्नान्डीज — जिनके होने की वजह तब की बॉम्बे के टैक्सीचालकों का आंदोलन था या उसके बाद हुई रेल हड़ताल थी। इमरजेंसी के दौरान तो वे डायनामाइट लेकर सरकार को उड़ाने तक निकल पड़े थे। मगर बाद में संघ सम्प्रदाय के राज्यारोहण के ऐसे पुरोहित बने कि कन्धमाल के ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बच्चों की जघन्य हत्या पर लीपापोती करने तक जा पहुंचे। नितीश कुमार नियुक्त राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने यही कलाबाजी तीन कृषि कानूनों को सदन में पारित करते समय दिखाई।
क्या यह रूपांतरण अनायास है? नहीं। यह स्वाभाविक पतन है और इसका कारण एक खास किस्म के वैचारिक दिवालियेपन में निहित है — विचार और नीति को ताक पर रखकर सिर्फ गैर कांग्रेसवाद का नारा देना। आर्थिंक-सामाजिक नीतियों पर गम्भीर विकल्प लाने की बजाय चुटकुलों और शोशेबाजी के आधार पर राजनीति करना इसी गत तक पहुंचाता है। जर्मनी से इटली और फ़्रांस होते हुए दुनिया भर के समाजवादियों का यही हश्र हुआ है, अपने-अपने देशों में वे फासिस्ट तानाशाहों की पालकी के कहार बने हैं। भारत मे यदि फर्नान्डीज के राजनीतिक वारिस नितीश कुमार यह सब कर रहे हैं, तो कोई नई बात नही है। ये ऐसे समाजवादी हैं, जो समाजवाद तो छोड़िए, पूँजीवाद को भी नही जानते। और जो पूँजीवाद को नहीं जानते, वे फासीवाद को भी नही समझ सकते हैं।
भाँति-भाँति के गांधीवादियों के रूप-प्रकार परिभाषित करते हुए डॉ. राममनोहर लोहिया ने उन्हें तीन प्रजातियों में बाँटा था — सरकारी गाँधीवादी, मठी गाँधीवादी और कुजात गाँधीवादी। स्वयं जैसों को उन्होंने कुजात गाँधीवादी की श्रेणी में रखा था। आज यदि वे होते और खुद को लोहिया का जीता जागता अवतार बताने वाले नितीश कुमार के किये-धरे को देखते तो जरूर मठी, कुजात और सरकारी के अलावा एक चौथी श्रेणी बनाते — सावरकरी गाँधीवादी!!
हालाँकि नितीश बाबू पूरे उसमे भी नहीं समा पाते। उसके लिए एक नई ही श्रेणी ईजाद करनी होती।