सार रूप में कहानी यह है कि आधी रात में अलाने की भैंस बीमार पड़ी। बीमारी समझ ही नहीं आ रही थी। उन्हें किसी ने बताया कि ठीक यही बीमारी गाँव के फलाने की भैंस को भी हुयी थी। वे दौड़े-दौड़े उनके पास गए और वो दवा पूछकर आये, जो उन्होंने अपनी बीमार भैंस को दी थी और घर लौटकर अपनी भैंस को खिला दी। सुबह होने से पहले भैंस चल बसी। गुस्से में तमतमाये हुए अलाने तड़ाक से फलाने के घर जा धमके और उनसे कहा कि ये कैसी दवा दे दी, जिसे खाकर भैंस मर गयी। फलाने बहुत तसल्ली के साथ बोले ; “भाई तूने पूछा था कि मैंने अपनी बीमार भैंस को कौन सी दवा दी थी। सो दवा मैंने बता दी। भैंस के बारे में पूछा ही कहाँ था? वो दवा देने के बाद भैंस तो मेरी भी मर गयी थी।”
मसला यह है कि ठीक उसी मरी भैंस की दवा अब जम्बूद्वीपे भारतखण्डे में आजमाई जा रही है। नवउदारीकरण की नीतियों के आख़िरी दाँव के रूप में दवा कहकर जो खुराक तीन कृषि कानूनों के नाम पर अब भारत के कृषि क्षेत्र में पिलाई जा रही है ; उस नुस्खे की दवाईयां लेने वाली दुनिया भर की सारी भैंसे मर चुकी हैं। उन सभी देशों में न सिर्फ किसानों की तबाही हुयी है, बल्कि जनता की थाली भी खाली हुयी है। निकट भविष्य में इसमें कोई तबदीली आने की संभावना इसलिए नहीं दिखाई देती, क्योंकि इन सभी देशों में अब जमीन पर कारपोरेट कंपनियों का ऐसे या वैसे तकरीबन इजारा कायम हो चुका है।
यहां फिलीपींस और ब्राजील दो देशों के तजुर्बों पर सरसरी नजर डालने से, इन तीन कृषि कानूनों के लागू होने के बाद के भारत के आगामी भविष्य की झलक मिल जाती है।
दुनिया के कृषि व्यापार के दो-तिहाई हिस्से पर जिन तीन अमरीकी कंपनियों – कारगिल, मिडलैंड और बुंगे (या बंजी) का कब्जा है, उनमे से तीसरी वाली कंपनी के कर्जे के बोझ तले दबे हुए हैं ब्राजील के किसान। इस कम्पनी ने उनकी उपज और जमीन दोनों की कुर्की कर अपने कब्जे में लेने के लिए दावे ठोके हुए हैं। ब्राजील अकेला नहीं है। अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के अनेक देश इसी तरह के कब्जों के शिकार बने हैं। उनकी जमीनों पर विदेशी कंपनियों के कब्जे हुए, जिन पर या तो खुद उन्होंने जैविक ईंधन पैदा करने वाली फसल उगाई या इसी काम के लिए दूसरी कंपनियों को लीज पर दे दिया। अनाज उपजाने के लिए नहीं – जैविक ईंधन या अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए जरूरी माल पैदा करने के लिए लीज पर दे दिया।
खाद्यान्न व्यापार की शार्क और खाद-बीज-कीटनाशक-पशु आहार की व्हेल मछलियां मिले-जुले सुर और संगति में एक साथ टूटी और सारी देशज विविधताओं को पूरी तरह खत्म कर अपना एकाधिकार कायम कर लिया। फिलीपींस का उदाहरण सामने हैं, जहां 1960 तक मौसम की विविधताओं और प्रतिकूलताओं से जूझने की क्षमता वाली चावल की कोई 3000 किस्मे हुआ करती थीं। बीज व्यापार पर कारपोरेट कंपनियों के वर्चस्व के बाद अब फिलीपींस की 98% खेती सिर्फ 2 किस्म के चावल की पैदावार कर रही है।
इन “छोटे-मोटे” गरीब-गुरबे महाद्वीपों और देशों की बात अगर जाने भी दें, तो पूँजीवाद के कथित “स्वर्ग” संयुक्त राज्य अमरीका में खेती के कारपोरेटीकरण के नतीजे कम विनाशकारी नहीं है। इसी साल की जनवरी में 4 प्रमुख एक्टिविस्ट्स ने अमरीका के भीतर 10 हजार वर्ग किलोमीटर के मैदानी सर्वे के बाद जो आँखों देखी रिपोर्ट जारी की है, वह भारत के नागरिकों के लिए सिहरन पैदा करने वाली है। इस रिपोर्ट के विस्तार में जाए बिना इसके कुछ पहलुओं को ही देखना काफी होगा।
जैसे ; कि अमरीकी किसानों की आमदनी लगातार घटी है और अब ऋणात्मक – मतलब घाटे का सौदा – हो गयी है। इसकी वजह यह है कि पिछले 20 वर्षों में गेंहूं की उत्पादन लागत तीन गुना बढ़ गयी, जबकि बाजार पर कारपोरेट कंपनियों के प्रभुत्व के चलते इसकी कीमते वास्तविक मूल्य के हिसाब से देखी जाएँ, तो 1865 के गृहयुद्ध के बराबर ही ठहरी हुयी हैं। खुदरा मूल्यों में किसान का हिस्सा सन 1950 में 50 फीसद हुआ करता था, जो अब घटकर 30% तक आ गया है।
कि नतीजे में किसानों पर 425 अरब डॉलर का कर्जा चढ़ गया है और उनकी आत्महत्याएं तेजी से बढ़ते हुए राष्ट्रीय औसत का 4 से 5 गुना हो गयी हैं।
कि इस तबाही के सामाजिक प्रभाव भयानक हुए हैं। जैसे ; 80 प्रतिशत ग्रामीण जिलों (काउन्टीज) में जन्मदर घट गयी है। खेती से किसानों की आमदनी घटी, तो ग्रामीण इलाकों की दुकानें, अस्पताल और स्कूल भी बंद होने लगे। खेत उजड़े, फ़ार्म बिके और छोटे शहर-कस्बे खाली और भुतहा हो गए।
कि दुनिया को उपदेश देने वाले संयुक्त राज्य अमरीका में ग्रामीण इलाकों के हर साल 1000 स्कूल बंद हो रहे हैं।
यह तबाही ताजी-ताजी है और 1981 में रोनाल्ड रीगन के राष्ट्रपति काल से शुरू हुयी है। इसकी वजह है रीगन द्वारा खेती-किसानी के काम में कारपोरेट कंपनियों के प्रवेश की खुली छूट देना। किसानों को दी जाने वाली सारी मदद खत्म करना। यहाँ के एमएसपी जैसा जो सिस्टम वहां था, उसे समाप्त कर देना और ठेका खेती की शुरुआत करना। चार बड़ी कारपोरेट कंपनियों ने फ़टाफ़ट पूरे अमरीका के किसानों और पशुपालकों के धंधे कब्जा लिए। रासायनिक खाद के 80%, बीज – अनाज – डेरी, मीट व्यापार के दो-तिहाई तथा कृषि मशीनरी के 100 फीसद पर कब्जा जमा लिया। किसानों से खरीदे जाने वाले सोया, गेंहू, मक्के के दाम कम से कमतर होते गए। बीज, खाद, उर्वरक, कीटनाशक, बिजली और पशु आहार महंगे होते गए और किसानों के हाथ से सारे कामधंधे निकल कर कारपोरेट के हाथ में पहुँचते गए। पशुपालन और दूध व्यापार पर भी इन्ही कंपनियों का कब्जा हो गया। सारी सरकारी मदद और सब्सिडी भी यही कंपनियां कबाड़ती रहीं। नतीजा यह निकला कि रीगन को वोट देते वक़्त जो अपनी जमीन पर खेती करने वाला किसान था, अब वह अपने गुजारे के लिए या तो किसी फैक्ट्री में 12-12 घंटे काम कर रहा है या किसी कारपोरेट कंपनियों का बंधुआ गुलाम बना हुआ है या फिर मुर्गीपालकों के 75% के गरीबी रेखा के नीचे पहुँचने की स्थिति को प्राप्त हो गया है या फिर आत्महत्या की तैयारी कर रहा है।
इसका कोई लाभ नागरिकों तक नहीं पहुंचा। उलटे उसकी भुखमरी पहले से कहीं ज्यादा हुयी। एक अध्ययन के मुताबिक़ रीगन से लेकर ट्रम्प तक के अमरीका में खाने-पीने की चीजों के दाम 200 प्रतिशत तक बढे हैं, जबकि इस दौरान 90 फीसद अमरीकी आबादी की आमदनी में फकत 25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुयी है।
जिन नुस्खों पर चलकर अफ्रीका, दक्षिण अमरीका और खुद संयुक्त राज्य अमरीका की भैंसे मर गयीं, ठीक वही नुस्खा तीन कृषि कानूनों के रूप में मोदी सरकार लेकर आयी है। न शब्द बदले हैं, न मात्रा में कोई फेरबदल है। यहां तक कि वे इन नीतियों को लाने वालों की कारपोरेट मीडिया द्वारा की जाने वाली स्तुति में भी तनिक सा अंतर नहीं है। इन नीतियों से छप्परफाड़ मुनाफ़ा कमाने वाले कार्पोरेट्स और उनके मीडिया ने रीगन को लौहपुरुष बताते हुए उनके इन कदमों को रीगनोमिक्स कहा था – वे ही आज नरेन्द्र मोदी को भी लौहपुरुष करार दे रहे हैं और विनाश के इस नुस्खे को मोदीनोमिक्स बता रहे हैं।
बस अंतर इतना है कि दाढ़ में आदमखोर मुनाफे का खून लगाए ये कारपोरेट यह भूल रहे हैं कि अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के अधिकाँश देशों की जनता ने इनके जरखरीदों को सत्ता से बेदखल कर दिया था। यहां तक कि संयुक्त राज्य अमरीका की राजनीति को भी – भले मुंहजबानी ही – जनोन्मुखी कदम उठाने के रास्ते पर चलने के लिए विवश कर दिया है। भारत के किसान और मजदूर, फिलहाल तीन कृषि क़ानून और चार लेबर कोड्स के खिलाफ सडकों पर हैं। मगर देरसबेर यह संघर्ष भी राजनीति के आधार को भी बदलने तक जायेंगे। ठीक यही डर है, जो फासिस्टी आरएसएस के नियंत्रण वाली भाजपा की सरकारों को बौखलाए हुए है, उन्हें लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों पर हमलावर बनाये हुए है। यह एक तरफ जहां हुक्मरानों के निरंतर बढ़ते अलगाव और उसमें निहित पराजय का संकेत है, वहीँ अवाम के लिए अपनी जद्दोजहद को तेज से तेजतर करने का संदेश भी है।