जगदलपुर। बस्तर में 610 साल से चल रही होलिका दहन व माड़पाल होरी मड़ई की परंपरा रविवार को पूरी की जाएगी। ग्राम माड़पाल में होलिका दहन की शुरुआत होगी। इसके बाद जगदलपुर मावली मंदिर के समक्ष जोड़ा होलिका दहन उपरांत पूरे संभाग में होलिका दहन की शुरुआत होगी। खास बात यह है कि बस्तर की होलिका दहन की कहानी भक्त प्रह्लाद से नहीं बल्कि देवी-देवताओं से जुड़ी हुई है। कई मायनों में बस्तर में होलिका दहन की परंपरा देश के अन्य जगहों से बिलकुल अलग है। बस्तर के रियासत कालीन होली में दंतेवाड़ा की फागुन मड़ई मेला, माड़पाल गांव की होली और जगदलपुर की जोड़ा होली की परंपरा आज भी 610 सालों से निभाई जा रही है। खास बात यह है कि बस्तर की होली में भक्त प्रहलाद और होलिका गौण हो जाते हैं। इनकी जगह पर कृष्ण के रूप में भगवान जग्गनाथ स्वामी व दंतेश्वरी माता, मावली माता और देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना कर होलिका दहन किया जाता है। जगदलपुर में जोड़ा होलिका दहन के बाद ही बस्तर संभाग के अन्य जगहों पर होलिका दहन किया जाता है। माड़पाल में होली जलने के बाद उस होली की आग को 20 किमी दूर जगदलपुर शहर के मावली मंदिर के सामने जलाए जाने वाली जोड़ा होलिका दहन के लिए लाया जाता है। रियासत काल में होलिका की आग घुड़सवार द्वारा लाई जाती थी। जगदलपुर में जोड़ा होलिका दहन के बाद ही बस्तर संभाग के अन्य जगहों पर होलिका दहन किया जाता है। शहर के मावली मंदिर के सामने जलाए जाने वाली जोड़ी होली का दहन का अपना अलग ही महत्व है। राकेश पांडेय बताते हैं कि एक मावली माता को और दूसरी होली को जगन्नाथ भगवान को समर्पित किया जाता है। रविवार रात इस रस्म को परंपरानुार निभाया जाएगा। राजपरिवार सदस्य कमलचंद भंजदेव की मौजूदगी में धूमधाम से मावली माता और दंतेश्वरी माता के डोली का विधि विधान से पूजा-अर्चना कर मंदिर परिसर में भ्रमण कराकर होलिका दहन किया जाएगा। बस्तर संभाग में सबसे पहले होलिका दहन दंतेवाड़ा के फागुन मड़ई मेले में की जाती है। यहां लकड़ी और कंडा से नहीं बल्कि बस्तर में पाई जाने वाले ताड़ पेड़ के पत्तों से होलिका दहन किया जाता है। इसके बाद होली के दिन इसकी राख से होली खेलने की परंपरा है। दंतेवाड़ा में सबसे पहले होलिका दहन के बाद बस्तर जिले के माड़पाल गांव में दूसरी होली जलाई जाती है, जिसमें बस्तर राज परिवार के सदस्य के साथ हजारों की संख्या में ग्रामीण मौजूद रहते हैं। बताया जाता है कि बस्तर के तत्कालीन महाराजा पुरुषोत्तम देव भगवान जगन्नाथ के परम भक्त थे। 1408 ई में महाराजा पुरुषोत्तम देव भगवान जगन्नाथ के सेवक के रूप में रथपति की उपाधि का सौभाग्य प्राप्त कर बस्तर लौटते वक्त फागुन पूर्णिमा के दिन उनका काफिला माड़पाल गांव पहुंचा था। तब उन्हें इस दिन के महत्व का एहसास हुआ कि फागुन पूर्णिमा है और आज के दिन भगवान जगन्नाथ धाम पुरी में हर्षोल्लास के साथ राधा कृष्ण जमकर होली खेलते हैं तो राजा ने माड़पाल में होली जलाकर उत्सव मनाने का निर्णय लिया। तब से माड़पाल में होलिका दहन की परंपरा निभाई जाती है। आज भी माड़पाल होलिका दहन में राज परिवार के सदस्य भाग लेते हैं। इसके बाद संभाग के अलग-अलग जगहों में होलिका दहन की रस्म निभाई जाती है।
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