पति की मौत के बाद पत्‍नी के दावे को खारिज करना LIC को पड़ा भारी, अब देना होगा 14 लाख

रायपुर। राज्य उपभोक्ता आयोग ने भारतीय जीवन बीमा निगम (Life Insurance Corporation) को सेवा की कमी के मामले में दोषी पाते हुए 14 लाख रुपये का बीमा दावा राशि और मानसिक क्षतिपूर्ति के तौर पर 15 हजार और वाद व्यय तीन हजार रूपये भुगतान करने का फैसला सुनाया है। यदि भुगतान 45 दिनों के भीतर नहीं किया गया तो उक्त राशि पर छह प्रतिशत वार्षिक ब्याज का भुगतान भी परिवादी को देय होगा। जानकारी के अनुसार जांजगीर चांपा जिले के वार्ड नंबर 15 नया बाराद्वार निवासी बुटानू भैना सड़क हादसे में गंभीर रूप से घायल हो गया था। 20 अप्रैल 2022 को अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई थी। जीवित रहने के दौरान उसके द्वारा भारतीय जीवन बीमा निगम के सीएबी शाखा रायपुर से आठ लाख और छह लाख समेत कुल 14 लाख रुपये की दो पालिसी ली थी। दोनों पालिसियों में नामिनी के रूप में उसकी पत्नी फुलेश्वरी बाई का नाम दर्ज था। अपने पति की मौत के बाद फुलेश्वरी बाई ने निगम में बीमा दावा पेश किया तो निगम की ओर से पूर्व में इलाज एवं अपंगता के संबंध में गलत जानकारी देने की बात कहते हुए दावा को निरस्त कर दिया गया। इससे क्षुब्ध होकर फुलेश्वरी ने जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग जांजगीर-चांपा में परिवाद पेश किया। आयोग के समक्ष भी बीमा निगम ने बीमा दावा निरस्त करने का वहीं आधार बताया। बीमा कंपनी के दावे को निरस्त कर दिया गया। इसके बाद बीमा कंपनी राज्य उपभोक्ता आयोग के पास पहुंचा। अपील की सुनवाई के दौरान राज्य उपभोक्ता आयोग अध्यक्ष न्यायमूर्ति गौतम चौरड़िया, सदस्य प्रमोद कुमार वर्मा की पीठ ने पाया कि बीमित का दुर्घटना के कारण वर्ष 2013 में अस्पताल में इलाज हुआ था और उसके दोनों पैर काटने पड़े थे, जिसकी जानकारी नहीं देने के आधार पर ही जीवन बीमा निगम ने बीमा दावा को निरस्त किया गया था, किंतु दस्तावेजों से यह साफ होना पाया कि दावा भरते समय एजेंट ने स्वयं बीमित को देखकर ही फार्म भरा साथ ही प्रस्ताव फार्म में बीमा निगम के लाइसेंसी डाक्टर के हस्ताक्षर व सील भी लगे हैं, यानि बीमा निगम के एजेंट व डाक्टर द्वारा बीमित के भौतिक परीक्षण करने के बाद ही बीमा प्रस्ताव को निगम ने स्वीकार कर दोनों पालिसियां जारी की थी। इसलिए जीवन बीमा निगम बीमा दावा का देनदार है। इस आधार पर बीमा निगम की अपील को निरस्त कर जिला आयोग के फैसले को बरकरार रखते हुए भुगतान करने का आदेश दिया।

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