भारत रत्न स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जी की जयंती पर विशेष
अटल जी: आधुनिक भारत के राष्ट्रपुरूष
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्। श्रीमद्भगवद्गीता 4/18
धर्मेंद्र भाव सिंह लोधी
भोपाल
अर्थात जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान और सर्वश्रेष्ठ है। वह कर्म प्रवृत्ति रह कर भी सर्वदा दिव्य स्थिति में रहता है। भारतरत्न स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी भी एक ऐसे ही कर्मशील युगपुरुष थे, जो जीवनपर्यंत नि:स्वार्थ और अनासक्त भाव से अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहे। उनके कार्यों में व्यक्तिगत भाव किंचित मात्र भी नहीं रहा है। उनके प्रत्येक कर्म में सदैव राष्ट्रहित सर्वोपरि था। वे केवल राष्ट्र के लिए हीं जीते थे,उनकी हर श्वास के लिए थी। इसलिए उनका कर्तव्य पथ उन्हें मोक्ष के मार्ग पर लेकर जाता है। व्यक्तिगत उपबंध से स्वाधीन अटल जी का चिंतन और चिंता का विषय सदैव संपूर्ण राष्ट्र रहा है। भारत और भारतीयता की संप्रभुता एवं उसके संवर्धन की कामना ही उनके चिंतन और दर्शन में सर्वोपरि रही है। उन्होंने राष्ट्र के सम्मान और समृद्धि को सर्वोच्च प्राथमिकता दी और कभी भी किसी भी संकट से विचलित नहीं हुए। उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता की भावना,जिस ओजस्विता, तेजस्विता और वीरता के स्वरों के साथ व्यक्त हुई, वह राष्ट्र के गौरव को रेखांकित करती है। अटल जी कहते हैं-
आज सिंधु में ज्वार उठा है, नगपति फिर ललकार उठा है,
कुरुक्षेत्र के कण–कण से फिर, पांचजन्य हुँकार उठा है।
शत–शत आघातों को सहकर, जीवित हिंदुस्तान हमारा,
जग के मस्तक पर रोली-सा, शोभित हिंदुस्तान हमारा।
दुनियाँ का इतिहास पूछता, रोम कहाँ, यूनान कहाँ है?
घर–घर में शुभ अग्नि जलाता, वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के, व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा,
किंतु चीरकर तम की छाती, चमका हिंदुस्तान हमारा।
अटल जी का राष्ट्रवादी चिंतन उनकी राजनीति, लेखनी और व्यक्तित्व में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वह भारतीय सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीय गौरव के प्रबल समर्थक थे। उनके विचारों के केंद्र में सदा भारत रहा है। उनका राष्ट्रवाद ‘’सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’’ के सिद्धांत पर आधारित था। उनका मानना था कि भारतीय सभ्यता की नींव में सहिष्णुता, विविधता और समानता के मूल्य निहित हैं। वे कहते हैं-
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्र पुरुष है।
हम जिएंगे तो इसके लिए,
मरेंगे तो इसके लिए।
अटल जी एक आदर्शवादी राजनेता के साथ एक काव्य साधक भी थे। उनकी काव्य साधना में मानव समाज और राष्ट्र के प्रति उनकी व्यक्तिगत संवेदनशीलता आद्योपांत प्रकट होती है। वह एक ऐसे भारत के निर्माण का स्वप्न देखते थे, जो भूख, भय, गरीबी, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो। उनकी काव्य साधना में एक कर्मयोगी की कर्तव्य-परायणता और राष्ट्रवाद की दृढ़ भावना की झलक दिखाई देती है। वह कहते हैं –
पंद्रह अगस्त का दिन कहता, आजादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है,रावी की शपथ न पूरी है।
दिन दूर नहीं खंडित भारत को, पुनः अखंड बनाएंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक, आजादी पर्व मनाएंगे।
वाजपेयी जी एक अदम्य साहसिक व्यक्तित्व के धनी थे, वे जो सोच लेते थे उसे करके ही मानते थे। उनके राजनीतिक निर्णय में यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनका राष्ट्रवाद ‘’आत्मनिर्भर भारत’’ की अवधारणा पर आधारित था। वह भारत को आर्थिक, सामरिक और वैज्ञानिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। पोखरण परमाणु परीक्षण और कारगिल विजय जैसे अद्वितीय कार्य उनकी इस कविता को चरितार्थ करते हैं –
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी,
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर, लिखता हूं, मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं ।
वे भारत की एकता और अखंडता के लिए कितने सजग और संघर्षशील थे। यह बात उनकी कविताओं में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वे कहते हैं –
आहुति बाक़ी यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा।
अंतिम जय का वज्र बनाने,
नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।।
अटल जी का राष्ट्रवाद समावेशी था। वे धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे, किंतु इसका आशय तुष्टीकरण नहीं था। उनका मानना था कि सभी धर्म का सम्मान होना चाहिए और किसी भी धर्म को विशेष लाभ नहीं मिलना चाहिए। वह भारत के सभी वर्गों, धर्म और जातियों के लिए समान अवसर और समान अधिकार सुनिश्चित करना चाहते थे।
वाजपेयी जी एक आदर्शवादी और सिद्धांतवादी राजनेता थे। उनके चिंतन में राजनीति और नैतिकता का गहरा संबंध था। उनका मानना था,कि राजनीति में नैतिक मूल्यों का पालन किया जाना आवश्यक है। वह कहते थे – ‘’राजनीति में विरोध हो लेकिन विरोधी को शत्रु न माने।’’ उनका मानना था कि, राजनीति में विचारों का संघर्ष हो सकता है लेकिन उसे व्यक्तिगत वैमनस्य में नहीं बदलना चाहिए। इन्हीं राजनीतिक आदर्श ने उन्हें भारतीय राजनीति का अजातशत्रु बना दिया है।दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उनके सर्वांगीण राष्ट्रवादी चिंतन के कारण ही वर्ष 1994 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री व्ही०पी० नरसिम्हा राव द्वारा विशेष आग्रह कर अटल जी को जिनेवा में मानवाधिकारों के सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा था। भारत जैसे बड़े गणतांत्रिक राष्ट्र के नेता प्रतिपक्ष द्वारा सरकार का पक्ष प्रस्तुत किए जाने की यह घटना अपने आप में आश्चर्यजनक थी। इस घटना के कारण भारत के लोकतंत्र के प्रति विश्व में निष्ठा और विश्वास और अधिक दृढ़ हुआ। यह घटना अटल जी की योग्यता और उत्कृष्टता का प्रमाण है
अटल बिहारी वाजपेयी केवल एक राष्ट्रवादी राजनेता नहीं ही नहीं थे, बल्कि एक गहरे दार्शनिक चिंतक भी थे। उनका दार्शनिक चिंतन, जीवन, राजनीति, समाज और राष्ट्रीयता के व्यापक आयाम को समेटे हुए था। उनकी विचारधारा, मानवीय मूल्य, सहिष्णुता और सत्य निष्ठा पर आधारित थी। उनका दार्शनिक दृष्टिकोण मानवता के प्रति करुणा और मानव कल्याण की भावना से ओत-प्रोत था। उनकी कविता ‘जीवन की ढलान पर’,’मिले दो पल आराम के’ इस विचारधारा को सहज ही अभिव्यक्त करती है।
अटल जी का दार्शनिक चिंतन समाज और अर्थव्यवस्था के समावेशी विकास पर केंद्रित था। उनका मानना था कि देश का विकास तभी संभव है,जब समाज के सभी वर्गों को सामान अवसर प्राप्त होंगे एक अवसर पर अपने उद्बोधन में उन्होंने कहा था कि, ‘’हमने समाज के एक बड़े वर्ग को समाज की मुख्य धारा से जुड़ने से रोक रखा है।‘’‘सामाजिक समानता और समावेशी विकास’ की भावना उनकी कविताओं में भी सहज रूप से प्रकट होती है। वह कहते हैं: –
"बाधाएं आती हैं आएं,
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा,
कदम मिलाकर चलना होगा”
एक दार्शनिक राजनेता के रूप में अटल जी की भावना लोकतंत्र की अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति तक विकास को पहुंचाने और उसे समाज के मुख्य धारा में जोड़ने की थी। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और स्वर्णिम चतुर्भुज योजना जैसे लोक कल्याणकारी कार्य उनकी समावेशी और जनहितैषी भावना का ही प्रकटीकरण हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी का दार्शनिक दृष्टिकोण आध्यात्मिकता से प्रेरित था। उनका मानना था कि व्यक्ति को अपने कर्म, विचार और व्यवहार में आत्मशुद्धि और अनुशासन का पालन करना चाहिए। उन्होंने गीता के ‘कर्म योग’ को अपने जीवन और कार्यों में अपनाया। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि, कैसे कर्म और कर्तव्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उनका जीवन दर्शन हमें सिखाता है, कि कर्म,सेवा और सत्य के मार्ग पर चलकर जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन और कार्यों से यह दिखाया कि राजनीति, राष्ट्रीयता और मानवता को किस प्रकार संतुलित किया जा सकता है। वह कहते हैं-
दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते।
टूट सकते हैं मगर हम, झुक नहीं सकते।।
अटल जी का राष्ट्रवादी चिंतन उनके संपूर्ण जीवन के कार्यों में झलकता है। वह सही मायने में एक ऐसे राष्ट्रवादी थे जिन्होंने भारत को अपनी आत्मा और विचारों से नईं ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उन्होंने अपने संपूर्ण राजनीतिक जीवन में राजनीति की आदर्श मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं किया। जीवनपर्यंत उनका आचरण, व्यवहार नैतिक मूल्यों से समृद्ध रहा। लाल किले से लाहौर तक और संसद से संयुक्त राष्ट्र तक अटल जी के वक्तव्य में सत्य और आदर्श हमेशा प्रमाणित और प्रतिध्वनित होते रहे। एक सर्वमान्य और आदर्श नेता के रूप में उनका व्यक्तित्व न केवल भारतवर्ष में अपितु संपूर्ण विश्व में आदरणीय रहा है।
वास्तव में भारत अटल जी आधुनिक भारत के ‘राष्ट्रपुरुष’ हैं। अपनी मातृभूमि के प्रति उनका चिंतन और उनके कार्य निश्चित ही साहसिक और अद्वितीय हैं। उनके मूल्य, आदर्श, उनका दर्शन और राष्ट्रवादी चिंतन सदियों तक भारतवर्ष के लिए पथ प्रदर्शक और मार्गदर्शक के रूप में अनुकरणीय रहेंगे।