दिल्ली चुनाव में AAP को भ्रष्टाचार के आरोप, एंटी-इन्कंबेंसी और कांग्रेस से गठबंधन का न होना पड़ा भारी

नई दिल्ली

दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी की आंधी में आम आदमी पार्टी हवा हो गई। वो आम आदमी पार्टी जो लगातार दो चुनावों में प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई थी। लेकिन इस बार बीजेपी की कुछ ऐसी हवा चली कि AAP के बड़े-बड़े शूरमा उखड़ गए। खुद अरविंद केजरीवाल चुनाव हार गए। मनीष सिसोदिया चुनाव हार गए। AAP के तमाम दिग्गज चुनाव हार गए। न फ्री का वादा काम आया, न मुफ्त की रेवड़ियां काम आईं और न ही 'कट्टर ईमानदार' अरविंद केजरीवाल का चेहरा काम आया। आखिर ऐसा क्या हुआ कि कभी 70 में से 67 और 62 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी को इस बार बुरी शिकस्त का सामना करना पड़ा? आइए देखते हैं AAP की हार के 7 बड़े कारण क्या रहे।

1- एंटी-इन्कंबेंसी
आम आदमी पार्टी ने अपने जन्म के साथ ही दिल्ली के लोगों के दिल पर राज किया। 2013 के अपने पहले चुनाव में वह बीजेपी के बाद दूसरे नंबर पर रही थी लेकिन त्रिशंकु विधानसभा में वह उस कांग्रेस से हाथ मिला ली, जिसके कथित भ्रष्टाचार के विरोध से राजनीति शुरू की थी। खैर, कांग्रेस के साथ गठबंधन वाली आम आदमी पार्टी की वो सरकार 2 महीने भी नहीं टिकी। उसके बाद 2015 में 70 में से 67 और 2020 में 70 में से 62 सीटों पर जीत के साथ इतिहास रचा। पार्टी लगातार 10 सालों तक दिल्ली की सत्ता में रही। लगातार तीसरी बार जीत दर्ज करना वैसे भी बहुत आसान नहीं होता क्योंकि सत्ताविरोधी रुझान यानी एंटी-इन्कंबेंसी का खतरा बना रहता है। आम आदमी पार्टी को भी इस फैक्टर का नुकसान उठाना पड़ा।

2- करप्शन का दाग
अब इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस पार्टी ने भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से जन्म लिया, सत्ता में आने पर वह भी अपने दामन को करप्शन की कालिख से नहीं बचा पाई। खुद को कट्टर ईमानदार कहने वाले अरविंद केजरीवाल को करप्शन का दाग भारी पड़ा। भ्रष्टाचार के आरोपों में उन्हें खुद जेल जाना पड़ा। मनीष सिसोदिया को जेल जाना पड़ा। सत्येंद्र जैन को जेल जाना पड़ा। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी लगातार खुद के कट्टर ईमानदार होने की दुहाई देते रहे लेकिन दिल्ली की जनता ने उनको नकार दिया।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के शिल्पी अरविंद केजरीवाल जब दिल्ली की सत्ता में आए तो एक नई तरह की साफ-सुथरी, ईमानदार और वैकल्पिक राजनीति का वादा किया था। लेकिन किया क्या? सीएजी की रिपोर्ट को विधानसभा की पटल तक पर नहीं रखा। कभी जिस दिल्ली के एक मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना जैन हवाला कांड में अपना नाम लिए जाने पर ही पद से इस्तीफा दे दिया था, उसी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल आरोप तो छोड़िए, जेल में जाने के बाद भी इस्तीफा नहीं दिया। लालू प्रसाद यादव से लेकर हेमंत सोरेन तक तमाम मुख्यमंत्रियों ने जेल जाने की नौबत आने पर नैतिकता के आधार पर पद से इस्तीफा दिया था। लेकिन ईमानदारी की राजनीति के कथित चैंपियन केजरीवाल ने तो जेल से सरकार चलाने की ऐसी जिद दिखाई जो भारत की राजनीति में कभी नहीं हुआ। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने इस्तीफा जरूर दिया लेकिन शायद तबतक बहुत देर हो चुकी थी। अगर जेल जाते ही इस्तीफा दिए होते तो

3- मुफ्त बिजली-पानी मॉडल से आगे नहीं बढ़ पाना
अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने पहली बार सत्ता में आने के बाद मुफ्त-बिजली पानी वाला मॉडल पेश किया। सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की दशा में भी सुधार का दावा किया। सुधार हुए भी, लेकिन उतने भी नहीं जितना आम आदमी पार्टी ढिंढोरा पीटती है। इस मॉडल की बदौलत दो बार सरकार भी बनाई लेकिन पार्टी इससे आगे नहीं बढ़ पाई। हर नाकामी का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने का चलन चलाया। सड़कें बदहाल रहीं। जगह-जगह गंदगी का अंबार रहा। निगम चुनाव में जीत के बाद साफ-सफाई की जिम्मेदारी से भाग भी नहीं सकते थे। यमुना को साफ करने पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए लेकिन पानी आचमन तो छोड़िए नहाने लायक भी नहीं रहा। ये सब चीजें आम आदमी पार्टी के खिलाफ गईं।

4- फ्रीबीज पॉलिटिक्स में केजरीवाल को मिला तगड़ा कंपटिशन
दूसरी तरफ, विरोधियों ने भी केजरीवाल के खिलाफ उसी हथियार का इस्तेमाल किया जो उनकी ताकत थी। ये हथियार था मुफ्त वाली योजनाओं का जिन्हें राजनीति में फ्रीबीज या मुफ्त की रेवड़ियां भी कहा जाता है। केजरीवाल की फ्रीबीज पॉलिटिक्स को मुफ्त की रेवड़ियां बताकर और देश के लिए घातक बताकर खारिज करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी भी इसी होड़ में कूद गए। बीजेपी ने भी महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये, त्योहारों पर मुफ्त सिलिंडर, बुजुर्गों के लिए बढ़ी हुई पेंशन, मुफ्त इलाज जैसे लोकलुभावन वादे किए। साथ में ये भी कि आम आदमी पार्टी की सरकार की तरफ से चलाई जा रहीं मुफ्त वाली योजनाओं को भी जारी रखेंगे। इस चुनाव से पहले तक बीजेपी दिल्ली में मुफ्त की रेवड़ियों का विरोध किया था लेकिन इस बार उसने केजरीवाल के ही हथियार से केजरीवाल को मात दे दी। ये बात दीगर है कि फ्रीबीज पॉलिटिक्स से दिल्ली की इकॉनमी का कचूमर निकलता है, सत्ता तो आ ही गई।

5- केंद्रीय बजट
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार के कारणों में केंद्रीय बजट को भी गिना ही जाएगा। चुनाव से ठीक पहले जिस तरह बजट में मध्यम वर्ग को बड़ी सौगात दी गई, 12 लाख रुपये तक की आमदनी और वेतनभोगियों के मामले में तो 12.75 लाख रुपये तक की सालाना आमदनी को इनकम टैक्स से मुक्त करने का जो ऐलान हुआ, उसका सीधा लाभ बीजेपी को दिल्ली चुनाव में मिला है।

6-अरविंद केजरीवाल की गैर-जिम्मेदार राजनीति
अरविंद केजरीवाल ने सियासत में कदम रखते ही अलग तरह की राजनीति के नाम पर बिना किसी सबूत या आधार के बाकी सभी पार्टियों और उनके नेताओं को थोक के भाव में चोर-बेईमान का सर्टिफिकेट बांटना शुरू किया था। ये सिलसिला तब खत्म हुआ जब उन्हें नितिन गडकरी, कपिल सिब्बल, अवतार सिंह भड़ाना जैसे तमाम नेताओं से अदालतों में माफी मांगनी पड़ी। खैर इन सबका उन्हें राजनीतिक नुकसान नहीं उठाना पड़ा, बस ये फर्क पड़ा कि हर विरोधी नेता को चोर बताने की उनकी आदत छूट गई। लेकिन इस बार के दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने गैर-जिम्मेदार राजनीति की सारी सीमाएं लांघ दी। उन्होंने सीधे-सीधे हरियाणा की बीजेपी सरकार पर यमुना के पानी में जहर डालने और नरसंहार की साजिश का गंभीर आरोप लगा दिया। जब चुनाव आयोग का नोटिस पहुंचा तो उनकी भाषा बदल गई और कहने लगे कि वह तो यमुना के पानी में बढ़े हुए अमोनिया के स्तर की बात कर रहे थे। खैर, जनता सब समझती है और अब ये बात शायद केजरीवाल को भी समझ में आ गई हो।

7- 'अजेय' होने का दंभ!
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार का एक बड़ा कारण खुद के 'अजेय होने का दंभ' भी रहा। इसी दंभ में पार्टी ने गठबंधन के लिए बढ़ाए गए हाथ को झटक दिया। अब कांग्रेस की प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत कह रही हैं कि उनकी पार्टी ने गठबंधन का प्रस्ताव दिया था लेकिन AAP ने ठुकरा दिया। अरविंद केजरीवाल का दंभ बार-बार दिखा। विधानसभा में उनका वो अट्टहास, कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर बनी एक फिल्म को प्रॉपगैंडा बताते हुए 'यू-ट्यूब पर रिलीज कर दो' का तंज भी उनके खुद के अजेय होने के दंभ का ही परिचायक था। फिल्म प्रॉपगैंडा थी या नहीं, लेकिन केजरीवाल ने कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को ही एक तरह से झुठलाने की कोशिश की। इससे उन पर एक खास समुदाय के तुष्टीकरण के आरोप लगे। डैमेज कंट्रोल के लिए ही उन्होंने मंदिर के पुजारियों और गुरुद्वारों के ग्रंथियों को भी हर महीने एक निश्चित रकम देने का वादा किया। लेकिन ये भी काम नहीं आया।

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